संवैधानिक संस्थाए बन गयी हैं राजनीतिक झुनझुना ?

देश आजादी का अमृतकाल मना रहा हैं. लेकिन आजादी के इस अमृतकाल के खंड के दौरान संवैधानिक संस्थायाओ के सामने चुनौती हैं अपनी निष्पक्षता को साबित करनी की और ये बताने की वो आजाद हैं और उन पर किसी भी तरह का राजनैतिक दबाव नहीं हैं. आज कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने आज सुबह प्रेसवार्ता कर सरकार पर यह आरोप लगाया की देश कि संस्थाए स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर पा रही हैं. सरकारी तंत्र या गैर सरकारी तंत्र जो जनता की आवाज हैं,उन पर सरकार का पहरा हैं.

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आज जब विपक्ष जनता की आवाज उठा रहा हैं तो वह सही तरीके से जनता के बीच पहुच नहीं पा रही क्यूंकि संस्थाओ पर सरकार और संघ का कब्ज़ा हैं. खैर ये आरोप तो संवैधानिक संस्थायो पर कांग्रेस रीत UPA गठबंधन सरकार के दौरान भी लगते रहे हैं. भारत में कोई भी संस्था हो उसमे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विधायिका का हस्ताक्षेप तो रहता ही हैं.

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इसलिए जनता के मन ये प्रशन उठ सकते हैं कि क्या वाकई संस्था राजनीतिक दबाव में काम करती हैं ? क्या संस्था स्वतंत्र नहीं हैं ? क्या संवैधानिक संस्था का चोगा सिर्फ जनता को मुर्ख बनाने के लिए अख्तियार किया गया हैं ? आज जब विपक्ष ये बोल रहा हैं कि सदन में हमे बोलने नहीं दिया जाता हैं, सड़क पर हमें प्रदर्शन नहीं करने दिया जाता हैं, सरकार के खिलाफ बोलने पर हमारे पीछे लॉ एंड एन्फोर्समेंट एजेंसी छोड़ दी जाती हैं.

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तो इन आरोपों के जद में संवैधानिक संस्था भी आ जाती हैं ओर फिर जरुरी हो जाता हैं की वो अपनी कार्यशैली में निष्पक्षता का परिचय दे. हमारा भारत एक सामाजिक लोकतान्त्रिक देश हैं, मजबूत और विकसित लोकतंत्र के लिए जरुरी हैं की पक्ष और विपक्ष दोनों मिल कर काम करे क्यूंकि एक सदृढ़ लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका भी देशहित के लिए अहम हैं. क्यूंकि विपक्ष उस आयने की तरह हो सकता हैं जो आपको सही दिशा प्रदान कर सके. लेकिन एक बात तो विमर्श के लिए हम सबके सामने हैं जिस गति से प्रवर्तन निदेशालय काम कर रहा हैं उसने CBI को भी काफी पीछे छोड़ दिया हैं या यू कह लीजिये की जो सीबीआई ना कर सकी वो ED ने कर दिया हैं.

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ED ने अभी तक देश के 4 बड़े नेताओ को न्यायायिक हिरासत में भेज दिया हैं. देश की राजनीतिक राजधानी से लेकर आर्थिक राजधानी तक के नेता ED के जद में आये जो अब न्यायिक हिरासत में रह कर अपनी बेगुनाही साबित कर रहे हैं. लेकिन जब यह सवाल उठ रहा हैं आजादी के अमृतकाल के दौरान की ED सरीखी संस्था स्वतंत्र हैं कि नहीं तब ED और सरकार की लोकतांत्रिक जिम्मेवारी बनती हैं की वो इस बात को देश और विपक्ष के सामने पुख्ता करे कि संस्था स्वतंत्र हैं और वह बिना किसी राजनीतिक और विधायिका के दबाव में काम कर रही हैं. जैसा की हम सभी को विदित हैं कि संसद की और से कार्यपालिका शासन करती हैं.

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भारत में कार्यपालिका को पूरा अधिकार हैं की संसद द्वारा पारित वित्तीय और विधायी आदेशो को बिना किसी संसदीय अवरोध के कार्यरूप दे, लेकिन संसद को भी देश के संविधान ने यह अधिकार दिया हैं की कार्यपालिका से वह सूचना की मांग करे, कार्यपालिका के प्रस्तावों और कार्य की छानबीन करे. हम सबको पता हैं की कार्यपालिका संसद के प्रति उत्तरदायी हैं और प्रशासन जवाबदेह रहता हैं. संसद का यह भी कार्य हैं की कार्यपालिका पर राजनीतिक और वित्तीय नियंत्रण रखे और प्रशासन की संसदीय निगरानी रखे.

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जब संवैधानिक ढ़ाचे में ही विधायिका कार्यपालिका और प्रशासन एक दुसरे से जुड़े हैं तो क्या यह अनुमान लगाना गलत होगा की संस्थाओ में राजनीतिक हस्ताक्षेप तो नहीं होता होगा ? अगर किसी भी तरह का हस्ताक्षेप नहीं हैं तो सरकार और संस्था को जनता के सामने ये बात स्पष्ट करनी होगी कि सरकार की कोई दखलंदाजी नहीं हैं और ना ही संस्था किसी राजनीतिक दबाव में हैं. दबाव का एक कारण यह भी अनुमानित हैं की संवैधानिक संस्था में उच्च पद पर बैठे लोगो का मन इस बात के लिए भी अधिक लालायित रह सकता हैं की हम सरकार की गुड बुक में बने रहे, कि जैसे ही सेवा से निर्वित हो तो सरकार उन्हें किसी बोर्ड या सरकारी संगठन में कोई पद दे कर उनका बुढ़ापा सुधार दे.

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इस कारण भी कार्यवाही की दिशा और दशा भ्रमित हो जाने की संभावना रहती हैं. क्या अब समय आ गया हैं की जो भी संस्था संविधान में लिखित रूप से संवैधानिक या लॉ एन्फोर्समेंट एजेंसी हैं उनकी वित्तीय, पदोनत्ती उनकी जवाबदेही में कोई राजनीतिक हस्तक्षेप ना हो. सरकार कोई ऐसी संसदीय व्यवस्था करनी चाहिए जिस से इन संस्थायो की स्वायता, संकप्लता और कार्यशैली करने की क्षमता में वृद्धि हो.

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अगर जल्दी इन बातो पर विचार नहीं किया गया तो संवैधानिक संस्था राजनीतिक पार्टियों की हाथ का झुनझुना बन कर रह जाएगी. जब जिस राजनीतिक पार्टी का मन करेगा वह उसको दानव या ईमानदारी के पुतले के रूप में पेश करेगा. अगर इसी तरह संवैधानिक और विधायी संस्था का राजनीतिक हरण होता रहा तो जल्द ही ये संस्था और धीरे धीरे देश का संविधान और अंत में भारत से लोकतंत्र कुछ ऐसे ही गायब हो जायेगा जैसे राजीनति में से बहुत हद तक गायब हो चूका राजनैतिक सिद्धांत. इसलिए मजबूत लोकतंत्र और सुदृढ़ राष्ट्रवाद के लिए झूठ पाखंड और बेइमानी का तिलिस्म नहीं बल्कि हमें इमानदार, दूरदर्शी और समावेशी सोच की आवश्यकता हैं.

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Written By : MD SHAHZEB KHAN