सामाजिक कुरीतियों वाला आजादी का अमृतकाल !

देश आजादी माह में प्रवेश कर चूका हैं. देश ने कई क्षेत्रो में विकास के नए कीर्तिमान भी स्थापित किये हैं. आजादी के इस अमृत काल में देश ने अपने सामने नए लक्ष्य भी निर्धारित किये हैं. जिसमे मुख्य तौर पर देश को आत्म-निर्भर और समाज में विकास का स्थायीत्व पन लाने का भी लक्ष्य देश ने अपने सामने रखा हैं. लेकिन जब हम आज आजादी के अमृत काल की दहलीज पर खड़े हैं. तो हमें थोड़ी देर ठहर कर पीछे मुड़ कर देखने की भी जरुरत हैं. क्या हम सिर्फ अंग्रेजो के औपनिवेशक गुलामी से ही मुक्त हुए हैं, या तमाम उन कुरीतियों से भी मुक्त हुए हैं जो कई दशको और पीढियों से हमारी साथ जुडी हुई हैं. आजादी के अमृत काल में हमें देखने की जरुरत हैं की क्या आज भी वो कुरीतिया हमारे समाज में विधमान हैं ? क्या हमारा देश तुष्टिकरण,आर्थिक – सामाजिक विभेद,शोषण, से मुक्त हो चूका हैं ? क्यूंकि आधरभूत विकास के साथ हमें सामाज में नैतिकता ओर समानता का विकास कितना हुआ हैं इसे भी देखने की आवश्यकता हैं. आजादी के अमृत काल में इन बिंदुयो को भी टटोलने की आवश्यकता हैं.

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भारत जो विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं जो सबसे अधिक विविधितायो और सामाजिक संरचना का संगम हैं वहा आजादी प्राप्त करना और उसका गौरव और सम्मान बनाये रखना भारत की समावेशी सोच का ही परिचायक हैं. किसी भी देश का लोकतंत्र सामाजिक लोकतंत्र का ही पर्याय हैं. समाज के भीतर लोकतंत्र जितना मजबूत होगा देश का लोकतंत्र उतना दृढनिश्चयित और संकल्पित होगा. जब देश आजाद हुआ तब देश के नायको की भारत को लेकर दृष्टि यही थी की देश के विकास में समाज के सभी वर्गों की सोच का समावेश और समग्रता होगी. लेकिन समाज में कई कुरीतिया अभी भी विधमान हैं या उन्हें जान बुझकर जस का तस रखा गया हैं ! आजाद भारत ने देश में कई सत्ता देखी लेकिन दुःख की बात यह हैं की आज भी सत्ता के राजनीतिक खेल में तुष्टिकरण की सोच एक दानव की तरह समाज में विधमान हैं. लेकिन आज जब हम आजादी के अमृत काल के दौरान भी देखते हैं, अपने समाज को तो हम पाते हैं की आज भी हमारे समाज में ये कुरीतिया छद्म रूप से अपना स्थान बनांये हुए हैं.

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जिसके लिए बहुत हद तक समाज और नेता दोनों ही बराबर के जिम्मेवार हैं. जनसांख्यकी आधारित लोकतंत्र में सत्ता के शिखर पर वही वर्ग पंहुचा हैं या पहुचता जिसके राजनीतिक प्रारूप में अधिक से अधिक जनसँख्या सम्मिलित होती हैं. फिर चाहे उसकी कीमत तुष्टिकरण हो, आर्थिक सामाजिक विभेद हो, या फिर चाहे सत्ता के नैतिकता को रसातल में डाल कर कदाचार की निति अपनाना हो फर्क कुछ नहीं पड़ता हैं. आज जब हम समाज में तुष्टिकरण की बात करते हैं तो इसके लिए बहुत हद तक नेता और जनता दोनों ही जिम्मेवार हैं. राजनीतिक दल चुनाव से पहले जातीय समीकरण देख कर उम्मीदवार तय करते हैं. उसके बाद उनके पक्ष में जाति और धर्म के आधार पर प्रचार-प्रसार करते हैं और जन समर्थन जुटाया जाता हैं. जनता भी धर्म और जाति के मोह में फस कर प्रत्याशी से यह पूछना ही भूल जाती हैं कि प्रत्याशी के पास उनके बेहतर भविष्य के लिए क्या योजना और दूरदर्शिता हैं. लेकिन इन सवालो के बदले चुनावी माहौल में जनता के मन में इस तरह की अवधारणा का सृजन कर दिया जाता हैं की अगर आप अपने धर्म और जाति के व्यक्ति को मत नहीं देंगे तो आपके समाज और धर्म का प्रतिनिधित्व कम हो जायेगा. इसके बाद आपका धर्म और जाति दोनों ही खतरे में पड़ सकते हैं. अंत में परिणाम यह होता हैं की रोजगार स्वास्थ्य और शिक्षा के मुद्दे इस धर्म और जाति विषयो के सामने गौण हो जाते हैं. कई अध्यन में इस बात की पुष्टि भी हो चुकी हैं कि जब एक बड़ी मतदाता संख्या जब मत देने के लिए निकलती हैं, तो उसके मत देने का प्रथम आधार होता हैं, प्रत्याशी की जाति और धर्म उसके बाद प्रत्याशी किस राजनीतिक दल का नेता हैं. फिर वरीयता क्रम में आता हैं की मुख्यमंत्री का चेहरा कौन हैं. अंत में आता हैं की पार्टी ने जनहित के किन योजनायो को अपने संकल्प पत्र और वचन पत्र का हिस्सा बनाया हैं.

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इसलिए जब तक समाज में तुष्टिकरण की राजनीति विमर्श कि राजनीति पर हावी रहेगी तब तक सामाजिक और देश के लोकतंत्र पर तुष्टिकरण की आक्रमकता का घात होता रहेगा. देश में एक और बुराई सामाजिक रूप से हमारे समाज में प्रबलता से बनी हुई हैं, वो हैं सामाजिक-आर्थिक विभेद. अगर रिपोर्ट्स पर नज़र डाले तो भारत की 57 फिसद आमदनी पर देश के कुल 10 प्रतिशत लोगो को कब्ज़ा हैं. बाकि देश की आमदनी पर देश के 90 प्रतिशत लोगो की हिस्सेदारी हैं. सामाजिक विभेद यह हैं की भारत में लगभग 17.7 लाख बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हैं. राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण रिपोर्ट 2021 की रिपोर्ट पर गौर करे तो देश के लगभग 48 प्रतिशत बच्चे अपने विद्यालय पैदल जाते हैं, 18 प्रतिशत बच्चे साइकिल से, 9 प्रतिशत सार्वजनिक वाहनों से, 9 प्रतिशत स्कूली वाहनों से, 8 प्रतिशत अपने दोपहिया वाहन तथा 3 प्रतिशत अपने चौपहिया वाहन से स्कूल जाते हैं. अब आप इसी आकड़े से समझिये की सामाजिक-आर्थिक विभेद का बीज किस तरह बचपन से ही नवयुवको के मन में अंकुरित हो कर बड़े पेड का आकर लेती जा रही हैं. जिस देश में हर वर्ष 6.88 टन भोजन बर्बाद हो जाता हैं.उस देश में आज भी 18.9 करोड़ आबादी को पौष्टिक आहार नहीं मिलता हैं.

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यह हमारे लिए विचार करने योग्य बात हैं की देश का संविधान आज आजादी के अमृत काल के दौरान तक भी ठीक तरह से लागू नहीं हो पाया हैं. कैसे इस बड़े सामाजिक-आर्थिक विभेद के बीच देश के सभी आम-जनमानस गरिमामय जीवन-यापन का लाभ ले पायेंगे. इस देश ने शोषण का दंश इतना सहा हैं की मानो शोषण को इस देश ने अपनी नियति मान ली हो. क्यूंकि आजादी के 75 वर्ष बाद भी देश का श्रम वर्ग लगातार शोषित और उपेक्षा का शिकार हो रहा हैं. देश ने कई श्रम कानून देख लिए लेकिन मानो इसका अमल करना ऐसा कार्य हो गया हो जैसे एक आम आदमी को बोल दिया जाए की नारियल के पेड पर चढ़ कर नारियल तोड़ कर ले आये. कोई भी निजी संस्था अपने श्रमिको को पूरा तय वेतन श्रम कानून के हिसाब से नहीं देती हैं. छुट्टी के लिए कोई तय नियम का संस्था में ना होना. तय कार्य घंटो से अधिक समय तक कार्य करवाना, सही समय पर वेतन ना देना, बिना किसी पूर्व सूचना के कार्य मुक्त कर देना जैसे कई कृत्य हैं जो संस्थायो द्वारा किये जाते हैं. श्रम कानून का सही ज्ञान ना होना और सुलभता से श्रम अदालतों तक श्रमिको की पहुच का ना होना इस तरह के शोषण करने वालो का मनोबल बढ़ाते हैं. यह शोषण करने वाले लोग राजनीतिक और संस्था के तौर पर इतने मजबूत होते हैं की कानून भी उनके सामने बौना साबित होता हैं. जब भारत जो विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करता हैं जो की गौरव और सम्मान की बात हैं. लेकिन आजादी के इस अमृत काल में देश को समझने की आवश्यकता हैं की झूठ,पाखंड, सामाजिक कुरूति और बेईमानी के तिलिस्म से कोई नस्ल, कोई पीढ़ी या राष्ट्र कद्दावर नहीं बन सकता हैं, जिसकी जिम्मेवारी समाज और हमारे देश के राजनेता दोनों की ही सर्वोच्च जिम्मेवारी हैं.

written by : राकेश मोहन सिंह