समाज देश और लोकतंत्र

देश भारत, आजादी के अमृतकाल की दहलीज पर खड़ा हैं. आज राज्यसभा में देश के प्रधानमंत्री राज्यसभा सभापति और देश के 13वें उप-राष्ट्रपति एम वेंकिया नायडू के सम्मान में विदाई भाषण दे रहे थे. इस विदाई भाषण के दौरान देश के प्रधानमंत्री ने तीन विषयों को रेखांकित किया और वो था समाज देश और लोकतंत्र.

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आज जब देश अपनी आजादी का अमृतकाल मना रहा हैं तब इस बात पर विमर्श करना आवश्यक हैं कि हमारे महान लोकतंत्र की जड़ो में समाज,देश और लोकतंत्र के बीच में कितना अधिक संतुलन बना हुआ हैं. भारत में सामाजिक परंपरा ऐतिहासिक भी हैं और पौराणिक भी हैं.

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अगर हम समाज की बात करे तो इसकी स्पष्ट और तटस्थ व्याख्या की गयी हैं, भगवदगीता के अध्याय एक के 43वें श्लोक में कहा गया हैं कि समाज वो जहा सभी को नियम और कायदे के साथ रहना होता हैं. जिस जगह सभी व्यक्ति सम्मान से जीते हैं और सबका सम्मान होता हैं. जहा सभी लोग बिना किसी डर के एक साथ साहस से रहते हैं. लेकिन क्या भगवदगीता की यह सीख हम चरीतार्थ कर पा रहे हैं. क्या समाज के सभी वर्गों के बीच समानता हैं? सभी लोग सम्मान से जीवन यापन कर पा रहे हैं ! क्या समाज के भीतर संसाधनों का समान वितरण हो रहा हैं? क्या समाज के सभी वर्गों के बीच रोजगार और पौष्टिक भोजन की समान उपलब्धता हैं ? यह सवाल आप अपने अंतर्मन से पूछिए, हम बस आपको कुछ आकडे दे देते हैं. भारत में सम्मान पूर्वक जीवन के आधार की बात करे तो वो मुख्य-तौर पर हमारे संविधान के अनुसार सम्मान पूर्वक जीवन के लिए रोजगार को अति-महत्वपूर्ण माना गया हैं.

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अगर हम देश में रोजगार की वर्तमान परिस्थिती की बात करे तो जून 2022 में भारत में बेरोजगारी दर कुल कार्यबल का 7.8 फीसदी हो गई हैं. जून 2022 में वेतनभोगी कर्मचारियों के बीच 25 लाख नौकरियों में गिरावट देखी गई. तो अब आप अपने अंतर्मन से सवाल कीजिये कि आखिर कितने ही लोग होंगे जो समाज में सम्मान पूर्वक जीवन यापन से वंचित हैं. अगर हम बात करे समाज में नियम और कायदे की तो इसमें भी हम काफी पीछे छुटते नज़र आते हैं. हम सब अपने इर्द-गिर्द देख ही रहे हैं कि किस तरह समाज में प्रभावशाली व्यक्ति के लिए अलग क़ानूनी माप दंड हैं समाज के निचले तबके के लिए अलग माप-दंड क्यूंकि समाज प्रभावशाली व्यक्ति के प्रभाव से कभी मुक्त नहीं हो पाता हैं. हम सदियों से देखते आ रहे हैं कि किस तरह से हमारे देश को जमीदारी और सामंतवादी प्रथा जैसी कुरीतियों ने जकड़ा हुआ था. भले ही देश में ये माहौल हो की हम इन कुप्रथाओ से मुक्त हो चुके हैं लेकिन जमीनी तौर पर देखने से पता चलता हैं कि ये प्रथाए अभी भी हमारे समाज में विद्यमान हैं. इसलिए प्रभावशाली व्यक्ति के लिए समाज में अलग नियम हैं, और शोषित वंचित वर्ग के लिए अलग. समाज के अंतिम पद पर खड़े व्यक्ति की पहुच से न्याय भी बहुत दुर ही खड़ा दिखता हैं. तो क्या सांकेतिक रूप से कुरीतियों के खत्म हो जाने से ही समाज के सभी वर्ग के लिए समाज में नियम कायदे एक हो जायेंगे या इसके लिए जरुरी हैं समाज में समग्रता की सोच इस पर भी आप खुद विचार कीजिये ? अगर हम सामाजिक रूप से समाज में समान संसाधन वितरण की बात करे तो इस कसौटी पर भी हम खरे नहीं उतरते दीखते हैं.

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क्यूंकि अगर समाज में संसाधनों का समान रूप से वितरण हुआ होता तो समाज के हर व्यक्ति के पास रोजगार धन की समान उपलब्धता और थाली में भोजन भी समान रूप से पौष्टिक होता. लेकिन जैसा की हम सबको ज्ञात ही हैं कि देश के सर्वाधिक संसधानो पर देश के कुछ प्रतिशत व्यक्तियों का ही एकाधिकार झलकता हैं. अगर हमारे देश में सबकी थाली में समान पौष्टिकता होती तो हमारे देश की लगभग 17 करोड़ से अधिक जनसँख्या गंभीर कुपोषण का शिकार नहीं होती. एक समाज के तौर पर अभी भी हमें बहुत कदम चलने की आवश्यकता हैं. समाज और लोगो से बनता हैं देश. अगर आप एक आदर्श देश की परिकल्पना करते हैं. तो आपको एक आदर्श समाज की परिकल्पना करनी ही होगी क्यूंकि बिना आदर्श समाज की परिकल्पना के आप एक आदर्श देश की संकल्पना नहीं कर सकते हैं. अगर हम देश के संविधान कि प्रस्तावना पर गौर करे तो हम देखते हैं की उसमे बहुत तटस्थता से लिखा गया हैं सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय लेकिन क्या हम संविधान की प्रस्तावना की कसौटी पर खरे उतर पा रहे हैं ? क्या देश में सभी व्यक्ति और वर्ग के पास समान रूप से सामाजिक न्याय उपलब्ध हैं? क्या हमारे देश में न्यायपूर्ण आर्थिक समानता हैं ? क्या देश के सभी वर्ग जातियों और व्यक्ति की राजनीति में अपनी जनसँख्या के अनुरूप सहभागिता हैं ? तो इस बिंदु पर भी आप पाठक ही विचार कीजिये की देश की कसौटी के सिधान्त पर हम कितने खरे उतरे हैं. समाज और देश से बनता हैं किसी भी देश का लोकतंत्र.

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जब हमारा देश आजाद हुआ था तो शायद ही किसी ने सोचा होगा की विविधिता से भरा देश, आर्थिक और शिक्षा के तौर पर असमानता वाला देश अपना प्राप्त किया हुआ लोकतंत्र कितने समय तक सहेज पायेगा. पूरी दुनिया की नज़र इसी मुद्दे पर टिक्की थी. लेकिन हमारे देश निति-निर्माता और देश के नागरिको की समावेशी सोच समग्र विकास के दृष्टिकोण की वजह से हमारा महान देश आज 75 साल के पूर्ण करने के मुहाने पर खड़ा हैं. हमारे देश के निति-निर्मातायो और देश की जनता की वजह से हमारे देश का लोकतंत्र व्यापक,व्यावहारिक और पारदर्शी बना रहा है. इसी सोच और सहयोग की वजह से हमारे देश ने कृषि से लेकर अंतरिक्ष तक इन 75 सालो में कई कीर्तिमान रचे हैं. लेकिन बहुत हद तक हम सफ़र तय कर चुके हैं लेकिन जब तक हम सम्पनता में एकरूपता वाला समाज का गठन नहीं कर लेते तब तक समानता वाले लोकतंत्र की परिकल्पना बेमानी हैं.

Written By: राकेश मोहन सिंह